बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र ने ‘ओंकार’ का स्वाद प्राप्त कर लिया। उन्होंने इस मंत्र की उच्चतम अवस्था प्राप्त की; उन्होंने भीतर से उस परम मंत्र को सुना।
जब यह हुआ, तो बुद्ध ने उन्हें आदेश दिया कि वे बाहर जाकर लोगों को उपदेश दें।
सारिपुत्र ने बुद्ध से कहा, “अब मुझे बाहर जाने की कोई इच्छा नहीं है।”
बुद्ध ने उत्तर दिया, “यही कारण है कि मैं चाहता हूँ कि तुम जाओ। पहले तुम बाहरी दुनिया में फँसे हुए थे; यह भी एक प्रकार की बंधन थी। अब ‘भीतर’ तुम्हें बाँध न ले।”
पूर्ण, प्रबुद्ध आत्मा को भीतर या बाहर जाने में कोई कठिनाई नहीं होती। वह हवा के झोंके की तरह अंदर और बाहर आता-जाता है। अब अंदर, अंदर नहीं रहा, और बाहर, बाहर नहीं रहा; दोनों एक हो गए हैं। जैसे तुम आसानी से अपने घर के अंदर और बाहर जाते हो, वैसे ही जीवन तुम्हारा घर है; तुम्हें इसमें अंदर-बाहर जाने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
कुछ लोग संसार से बंधे होते हैं और कुछ आत्मा से; दोनों ही बंधन में हैं। वे अब तक अंतिम मोक्ष तक नहीं पहुँचे हैं। ज्ञानी व्यक्ति के पास कोई बंधन नहीं होता – न भीतर का, न बाहर का। वह सहज रूप से अंदर और बाहर प्रवाहित होता है!