लघु कथा – “बुद्धा की मौलुंगपुत्त से मुलाकात” हमें यह याद दिलाती है कि चाहे हम कितनी भी किताबें पढ़ लें, कितने भी वीडियो देख लें, या कितने भी सेमिनार और सत्संग में भाग ले लें, हमारी आत्मिक प्यास को शांति से बेहतर कुछ भी तृप्त नहीं कर सकता।
एक बार एक महान दार्शनिक बुद्ध के पास आया। उसका नाम मौलुंगपुत्त था। वह एक प्रसिद्ध दार्शनिक था और अपने साथ प्रश्नों का एक बड़ा समूह लेकर आया था। बुद्ध ने उसके प्रश्नों को ध्यान से सुना और कहा, “मौलुंगपुत्त, क्या तुम जवाब चाहते हो? अगर चाहते हो, तो क्या तुम इसकी कीमत चुका सकते हो?”
मौलुंगपुत्त ने कहा, “मेरे जीवन का अंत निकट आ रहा है। पूरा जीवन मैंने ये प्रश्न पूछते हुए बिताया है। मुझे बहुत सारे उत्तर मिले, लेकिन कोई भी उत्तर वास्तव में उत्तर साबित नहीं हुआ। हर उत्तर से नए प्रश्न उत्पन्न होते गए। किसी भी उत्तर में समाधान नहीं था। आप किस कीमत की मांग करते हैं? मैं पूरी कीमत चुकाने के लिए तैयार हूँ। मुझे केवल इन प्रश्नों का समाधान चाहिए। मैं इस धरती को इन प्रश्नों का समाधान करके छोड़ना चाहता हूँ।”
तब बुद्ध ने कहा, “अच्छा। लोग भी प्रश्न पूछते हैं लेकिन कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते। इसी वजह से मैंने तुमसे पूछा। दो वर्षों तक मौन में बैठो, यही कीमत है। दो वर्षों तक मेरे पास बैठो, बिना कुछ कहे। जब दो वर्ष बीत जाएँगे, तब मैं तुमसे कहूँगा, ‘मौलुंगपुत्त, अब अपने प्रश्न पूछो।‘ तब तुम जो चाहो पूछ सकते हो। और मैं वादा करता हूँ कि मैं हर चीज का उत्तर दूँगा, तुम्हारे सारे संदेह दूर कर दूँगा। लेकिन दो वर्ष पूरी तरह से स्थिर और मौन में बिताओ। दो वर्षों तक इसे सामने मत लाना।”
मौलुंगपुत्त इस बात पर सोच रहा था कि हाँ कहे या ना। दो साल एक लंबा समय है और कौन जानता है कि इस व्यक्ति पर भरोसा किया जा सकता है या नहीं, क्या वह दो साल बाद भी उत्तर देगा या नहीं? उसने पूछा, “क्या आप यह पूर्ण आश्वासन देते हैं कि आप दो वर्षों बाद उत्तर देंगे?”
बुद्ध ने कहा, “मैं पूर्ण आश्वासन देता हूँ, यदि तुम पूछोगे तो मैं उत्तर दूँगा। लेकिन यदि तुम नहीं पूछोगे, तो मैं किसे उत्तर दूँगा?”
उसी समय वहाँ एक शिष्य, एक भिक्षु, पास के एक पेड़ के नीचे ध्यान में बैठा था। वह जोर से हँसने लगा।
मौलुंगपुत्त ने पूछा, “यह भिक्षु क्यों हँस रहा है?”
बुद्ध ने कहा, “तुम उससे पूछो।”
भिक्षु ने कहा, “यदि तुम पूछना चाहते हो तो अभी पूछ लो। मुझे भी इसी तरह धोखा दिया गया था। उसने मुझे भी मूर्ख बनाया। लेकिन वह सच कह रहा है कि यदि तुम दो वर्षों बाद पूछोगे तो वह उत्तर देगा, लेकिन दो वर्षों बाद कौन पूछता है? मैंने भी दो वर्षों तक मौन में बैठा। अब वह मुझे बार–बार कहता है, ‘पूछो भाई।’ लेकिन दो वर्षों तक मौन में रहने के बाद कुछ पूछने का नहीं रहता, उत्तर मिल जाता है। यदि तुम पूछना चाहते हो, तो अभी पूछो, अन्यथा दो वर्षों बाद कुछ पूछने को नहीं बचेगा।”
और ऐसा ही हुआ। मौलुंगपुत्त दो वर्षों तक रुका। जब दो वर्ष समाप्त हो गए, बुद्ध ने तारीख याद रखी थी।
मौलुंगपुत्त भूल गया था कि दो वर्ष कब पूरे होंगे क्योंकि जिसके विचार धीमे हो जाते हैं, उसे समय का भान नहीं रहता। दिन, साल, किस दिन है, क्या महीना है – सब भूल चुका था। और जरूरत भी क्या थी? वह रोज बुद्ध के साथ बैठता था, तो शुक्रवार, शनिवार, रविवार या सोमवार सभी एक जैसे थे। जून या जुलाई, गर्मी या सर्दी सब एक समान थे। उसके भीतर केवल एक ही तरंग थी – शांति की, मौन की।
दो वर्ष पूरे हो गए। बुद्ध ने कहा, “मौलुंगपुत्त, खड़े हो जाओ।”
मौलुंगपुत्त खड़ा हो गया। बुद्ध ने कहा, “अब तुम पूछ सकते हो क्योंकि मैं अपने वादे से पीछे नहीं हटता। क्या तुम्हारे पास कुछ पूछने को है?”
मौलुंगपुत्त हँसने लगा और बोला, “वह भिक्षु सही था। अब मेरे पास पूछने को कुछ नहीं है। आपका आशीर्वाद पाकर उत्तर आ गया है।”
उत्तर दिया नहीं गया है, लेकिन वह प्राप्त हो गया है। उत्तर बाहर से नहीं आता, उत्तर भीतर से आता है। इसे कुएँ की खुदाई की तरह समझो। पहले पत्थर और कंकड़ हटाए जाते हैं, फिर कचरा हटता है, फिर सूखी मिट्टी, फिर गीली मिट्टी, फिर बहता पानी… बहता पानी दबा हुआ था। तुम्हारे प्रश्नों की परतों ने इसे ढक रखा है, बहता स्रोत इन सबके नीचे दबा है। खुदाई करो, और इन प्रश्नों को एक ओर हटाओ। और इन्हें हटाने का केवल एक तरीका है: साक्षी भाव से इस प्रश्नों की धारा को देखो। बस इस धारा को देखते रहो, कुछ मत करो। हर दिन एक या दो घंटे बैठो, और इस धारा को बहने दो। इसे आज ही रोकने की जल्दी मत करो।
इसीलिए बुद्ध ने दो वर्ष कहे थे। लगभग तीन महीने के बाद, मौन की पहली झलक मिलने लगती है। और जैसे ही दो वर्ष पूरे होते हैं, अनुभव पक जाता है। यदि कोई हर दिन दो घंटे बैठने की धैर्य रखता है, बिना कुछ किए… तो सारी कला इसी कुछ न करने में छिपी है।
“बुद्धा की मौलुंगपुत्त से मुलाकात” नामक इस लघुकथा में समय को शब्दशः नहीं लिया जाना चाहिए। यह व्यक्ति–व्यक्ति पर निर्भर करता है, और आज की तेज रफ्तार दुनिया में मौन का अर्थ समाज और उसकी विषाक्तता से दूर होकर अपने लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करना हो सकता है, साथ ही अपने काम में ध्यान साधना का अभ्यास करना।